मंगलवार, मार्च 24, 2015

गांधारी-सा दर्शन

देखना खुद से होता है 
सुना दूसरों को जाता है 

दूसरे क्या सुनाते हैं आपको 
क्या सुनने को 
करते हैं विवश 
यह हाथ में नहीं आपके 

बहुत से शकुनी
बहुत से दुर्योधन 
बहुत से धृतराष्ट्र
अक्सर इतना शोर मचाते हैं 
कि दब जाती  है आवाज़ 
न सिर्फ़ 
भीष्मों की 
विदुरों की 
पांडवों की 
अपितु 
कृष्ण तक की 
कानून की देवी भी 
चूक जाती है न्याय से 
धोखा खा जाती है 
दलीलों से 
दरअसल 
गांधारी-सा दर्शन है उसका 
बाँध रखी है उसने भी 
आँख पर पट्टी 
देखने से परहेज है उसे 
वह सिर्फ सुनती है 
उसे यकीन है
कानों सुने उस सच पर 
जो सदैव कमतर होता है 
आँखों देखे सच से |

दिलबाग विर्क 
*****

बुधवार, मार्च 18, 2015

ख्बाव होंगे सच, उम्मीद पूरी है

कुछ आदत थी, कुछ मजबूरी है 
खामोशी मेरे लिए जरूरी है । 
उम्मीदें टूटती हैं यहाँ अक्सर
ख्बाव होंगे सच, उम्मीद पूरी है । 

बिक रहा है वो कौड़ियों के मोल 
आदमी की चमक तो कोहेनूरी है । 

रिश्तों में कुछ फर्क नहीं पड़ता 
धरती - चाँद में कितनी दूरी है । 

देर - सवेर नुक्सान उठाएगा 
वो शख्स, जिसमें मगरूरी है । 

मंजिल ' विर्क ' दूर रही है मुझसे 
शायद मेरी चाहत अधूरी है  । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - विदुषी 
संपादक - रविन्द्र शर्मा 
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर 
प्रकाशन वर्ष - 2008  

बुधवार, मार्च 11, 2015

सफेद हो गया है, लहू न रहा लाल

इस देश महान का, हुआ है ये हाल 
कहीं पर है दंगा, कहीं पर हड़ताल । 
रोशनी की बजाए घर जलाने लगा 
जिसके भी हाथों दी हमने मशाल । 

मुद्दों का कभी कोई हल नहीं निकला 
आयोग बैठे , हुई जाँच-पड़ताल । 

शर्मो-हया का जिक्र क्यों करते हो 
सफेद हो गया है, लहू न रहा लाल । 

तमाशा बन गया है ये पूरा मुल्क 
होते हैं यहाँ हर रोज कुछ नए कमाल । 

वफ़ा की जगह ' विर्क ' बेवफाई आ गई 
कल भी थे, हम आज भी हैं बेमिसाल । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - विदुषी 
संपादक - रविन्द्र शर्मा 
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर 
प्रकाशन वर्ष - 2008  

बुधवार, मार्च 04, 2015

आई महूबब की याद, हुई आँख नम

सदा नहीं रहता ये खुशगवार मौसम 
खुशियों पर हावी हो ही जाते हैं गम । 
हालात बदलते कितनी देर लगे है 
आई महूबब की याद, हुई आँख नम । 

दिल टूटे, चाहे रुसवा हो मुहब्बत 
कब किसी की सुने, ये वक्त बेरहम । 

दोस्ती की अहमियत नहीं रही जब यहाँ 
क्या अहमियत रखेगी लोगों की कसम । 

नफरतों की रात में मुहब्बत का चिराग 
रौशनी तो है, मगर बड़ी मद्धिम-मद्धिम । 

बैठकर मसलों का जिक्र तो किया होता 
 फिर देखते, कसूरवार तुम थे या हम । 

बदले में भले ' विर्क ' बेवफाई ही मिले है 
कुछ लोग फिर भी लहराएँ वफ़ा का परचम । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - हृदय के गीत 
संयोजन - सृजन दीप कला मंच, पिथौरागढ़ 
प्रकाशन - अमित प्रकाशन, हल्द्वानी ( नैनीताल )
प्रकाशन वर्ष - 2008 
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