मंगलवार, अगस्त 12, 2014

चुप रहो, चुप रहो, चुप रहो

बात के मा 'ने बदलने के लिए बस काफी है वो 
मेरे होंठों, तेरे कानों के बीच फ़ासिला है जो । 

ये बात और है, हमने चुन लिए अलग-अलग रास्ते 
यूँ तो बचपन से हमें सिखाया गया था, मिलकर चलो । 

आदत बन गई है , राह चलती मुश्किलों को बुलाना 
मालूम नहीं, किससे सीखा हमदम बनाना दर्द को । 

दिल के दरवाजे पर जब दस्तक देती है तेरी याद 
लब खामोश हो जाते हैं और आँख पड़ती है रो । 

ख़ुशी बाँटना न चाहें हम, गम बँटाता नहीं कोई 
झूठी लगती है ये बात, जो भी मिले उसे बाँट लो । 

किसे ठहराऊँ कसूरवार ' विर्क ' अपनी गलतियों के लिए 
बारहा कहा था खुद से, चुप रहो, चुप रहो, चुप रहो । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - अंतर्मन 
संपादक - अनिल शर्मा ' अनिल '
प्रकाशन - अमन प्रकाशन, धामपुर { बिजनौर }
प्रकाशन वर्ष - 2007  

3 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल..हरेक शेर बहुत उम्दा...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
--
हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
स्वतन्त्रता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
--
हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
स्वतन्त्रता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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