बुधवार, जनवरी 25, 2012

देश मेरा जान मेरी

हुए थे सूरमा कई , जो खेले थे जान पर 
उनके ही प्रताप से , ये देश स्वतंत्र है   ।
न हो तानाशाह कोई , जनता का राज रहे 
दे संविधान बनाया , इसे गणतन्त्र है   ।
अधूरे  रहे  सपने , जनता  लाचार  हुई 
न रहा ईमान कहीं , भ्रष्ट सारा तन्त्र है   ।
बचे नहीं भ्रष्ट कोई , हो न यहाँ कष्ट कोई 
देश मेरा जान मेरी , यही एक मन्त्र है ।

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शनिवार, जनवरी 21, 2012

अग़ज़ल - 33

         रोना आया , कभी अपने हाल पर हंसी आई 
         बुरा न था मगर, मुझ पर हावी होती गई बुराई ।

         मैंने तो सोचा था, ढल जाएगा गम का यह मौसम 
         लेकिन लम्बी होती चली गई खुशियों से जुदाई ।

         क्यों कोई मसीहा उतरे ही नहीं इस जमीन पर 
         क्यों इन्सां और इन्सां के बीच बढती जाए खाई ?

         समझ नहीं आया मुझे क्यों दुश्मन हुआ जमाना 
         क्या गुनाह किया था मैंने , थी अगर वफा निभाई ।

         क्यों चहकते हैं नफरतों के फूल ऐ दुनियावालो 
         क्यों हैं मुहब्बत की कलियाँ मुरझाई - मुरझाई ?

         बहुत कुछ पाया है मगर कुछ खाली-खाली सा है 
         हैरान हूँ मैं , हमने है ये कैसी तकदीर पाई ।

         भीड़ में विर्क याद नहीं रहती अपनी औकात 
         गर सोचना चाहो खुद को तो मांगना तन्हाई ।

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सोमवार, जनवरी 16, 2012

आरक्षण की मार

आरक्षण  की  मार  है , रही  देश  को  मार ।
इक जाति कभी दूसरी , मांगे ये अधिकार ।।
मांगे ये अधिकार , नहीं इसका हल कोई   ।
करें  हैं  तोड़ - फोड़ , व्यर्थ में ताकत खोई ।।
कहे विर्क कविराय , नहीं दिखते शुभ लक्षण ।
हो सुविधा की मांग , न मांगो तुम आरक्षण ।।

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मंगलवार, जनवरी 10, 2012

अग़ज़ल - 32

खुशकिस्मत लोगों की हसीं मजलिस में शामिल नहीं हैं हम ।
न बढ़ाओ इस ओर अपनी कश्तियाँ साहिल नहीं हैं हम ।
मालूम है हमें सूखे दरख्तों पर फिर बहार आती नहीं 
उम्मीदों के सहारे जिएँ , इतने जाहिल नहीं हैं हम ।


कौन छुपाएगा हाल मेरा इस जमाने की निगाहों से 
कोई वकील नहीं हमारा, किसी के मुवक्किल नहीं हैं हम ।


अक्सर सोचा तो करते  हैं , उठें कोई तूफां बनके  
मगर सब लोग कहते हैं, इरादों में मुस्तकिल नहीं हैं हम ।


ये लम्बी तन्हाइयां मेरी , बन चुकी हैं मेरा मुकद्दर 
कोई काबिल नहीं हमारे , किसी के काबिल नहीं हैं हम ।


हालत थे ऐसे '' विर्क '' हम इंसां होकर भी इंसां न बने 
औरों की बात क्या करनी, अब खुद के मुकाबिल नहीं हैं हम 

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गुरुवार, जनवरी 05, 2012

दीवारें ( कविता )

धर्मों के बीच 
जातियों के बीच 
इंसानों के बीच 
कब खिंचती हैं 
ईंट-पत्थर की दीवारें 
बेशक 
एक घर को
दो घरों में बांटती है दीवार 
एक धरती को 
दो मुल्कों में बांटती है सरहद 
मगर 
ये दीवारें
ये सरहदें 
बाद की बात हैं 
पहले बंटती है 
आदमी की सोच
पहले खिंचती है दीवार 
मन-मस्तिष्क में 
हम छोड़ते ही नहीं
 सोचना
दीवारों के बारे में 
दीवारों का गिरना 
मुश्किल तो नहीं 
बशर्ते 
हम छोड़ सकें 
सोचना 
दीवारों के बारे में 
काश ! ऐसा हो ।

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