गुरुवार, मार्च 03, 2011

अगज़ल - 12

तुम हर बार छुपा जाते हो , प्यार जताते - जताते 
हम हर बार जता  जाते हैं , प्यार छुपाते - छुपाते  ।

अभी तो दिल ने चहकने का इरादा किया था फिर 
क्यों चुप हुए लब तुम्हारे , हमें बुलाते - बुलाते ।

आखिर कोई फैसला तो हो नजरों के खेल का 
परेशां हो गए हैं दिल पर जख्म खाते -खाते ।

क्या कहें हम अपनी इस खस्ताहाल तकदीर को
खो  चुके  हैं  कई  मंजिलें  बस  पाते - पाते ।

ये तुम्हारा तिलिस्म था या हमारी बेबसी 
सांसों में सजा बैठे , हम तुम्हें भुलाते - भुलाते ।

हो सके तो ' विर्क ' जल्दी से जिन्दगी में आना 
कहीं बहुत देर न हो जाए , तुम्हारे आते - आते ।

दिलबाग विर्क
* * * * *  

3 टिप्‍पणियां:

विशाल ने कहा…

बहुत मीठी सी ग़ज़ल है विर्क साहिब.
सलाम

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

रचना भावप्रधान लिखी है आपने!

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

सराहनीय लेखन के लिए बधाई एवं
उज्ज्वल भविष्य की मंगल-कामनाएं।
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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