गुरुवार, मार्च 31, 2011

कविता - 7

             कारण                                                
     जब भी कभी 
     जिक्र होता है महाभारत का 
     उँगलियाँ उठ ही जाती हैं 
     धृतराष्ट्र के पुत्र प्रेम की तरफ ,
     लेकिन 
      इस युद्ध के लिए 
     क्या उचित होगा 
     इसे ही एकमात्र कारण मानना ?
     क्या युद्ध 
     परिणाम होते हैं 
     सिर्फ एक कारण का ?
     नहीं ,
     इसके लिए 
     जरूरी होता है 
     कारणों की श्रृंखला का होना 
     और इसकी घातकता 
     निर्भर करती है 
     इस श्रृंखला की लम्बाई पर 
     इसलिए बड़े कारण तो 
     प्रत्यक्ष होते हुए भी 
     महत्त्वहीन हो जाते हैं 
     और महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं 
     छोटे-छोटे 
     अगणित 
     परोक्ष कारण .
     इन कारणों में 
     दुर्योधन का
     वह शक भी होता है 
     जिसके परिणामस्वरूप  
     हमें लगता है कि
     हनन हो रहा है 
     हमारे अधिकारों का 
     और पांचाली की 
     वह मनोवृति भी होती है 
     जिसके अंतर्गत 
     हम अपनी जीत समझते हैं 
     किसी के मर्म पर 
     प्रहार करने को .

        * * * * *  

रविवार, मार्च 27, 2011

अगज़ल - 14

चमकते हैं जो सितारे आसमां पर 
जमीं पर आकर हो जाते हैं पत्थर ।

हक मांगने की आदत छोडनी होगी 
अगर चाहते हो तुम ,बने प्यारा-सा घर ।

बहुत  गहरे  हैं  गमों  के  ये  अँधेरे
छोटी-सी जिन्दगी और लम्बा सफर ।

चिरागे-उम्मीद को तुम जलाए रखना 
ये  बुरा  वक्त  भी  कभी  जाएगा  गुजर ।

मुसाफिर हैं हम , चलना हमारा काम
मालूम  नहीं  हमें , है  मंजिल  किधर ।

फिर गम कैसा ' विर्क , बाज़ी हारने का 
कब जीता जाता है जिन्दगी का समर ।


दिलबाग विर्क 
* * * * *
                                समर  - युद्ध 
                       * * * * *
                        
      

सोमवार, मार्च 21, 2011

लघुकथा - 2

         बैकडोर एंट्री                 
" यह बैकडोर व्यवस्था कहीं भी पीछा नहीं छोडती ."- बैंक में मेरे साथ ही लाइन में खड़े एक युवक ने पिछली खिड़की से राशि निकलवाकर जाते आदमी को देखकर कहा .
' कोई मजबूरी होगी .'- मैंने सहज भाव से कहा .
" तो क्या हम बेकार हैं जो घंटे भर से खड़े हैं ? "- उसने कहा .
' चलो वक्त का थोडा नुकसान है , सब्र करो .'- मैंने हौंसला बंधाते हुए कहा .
" अकेले वक्त का नहीं , यह व्यवस्था तो जिंदगियां भी बर्बाद करती है ."-उसकी आवाज़ में रोष था .
' वो कैसे ? '- मैंने पूछा .
" इसी व्यवस्था के कारण कुछ लोग नौकरियां पा जाते हैं तो कुछ गलियों की खाक छानने को मजबूर हो जाते हैं ."-उसने निराश होकर कहा .
' नौकरी में बैकडोर व्यवस्था ? '- मैंने हैरानी से पूछा .
" एडहोक , ठेका , गेस्ट आदि के नाम पर भर्ती बैकडोर एंट्री ही तो है ."
' कैसे ? '- मैंने पूछा .'
" यह नियुक्तियां स्थानीय अधिकारीयों द्वारा बिना मैरिट के की जाती हैं . इनमें सिफारिश और रिश्वत का बोलबाला अधिक होता है . पहुंच वाले नौकरी खरीद लेते हैं और हम जैसे गरीब और सामान्य लोग देखते रह जाते हैं ."-उसने रुआंसा होकर कहा .
' ये भर्ती नियमित तो नहीं होती .'- मैंने तर्क दिया .
" ठीक कहते हैं आप , परन्तु ये लोग यूनियन बनाकर सरकार पर दवाब डालते हैं और वोटों की राजनीति करने वाले नेता इन्हें स्थायी कर देते हैं ."- उसकी आवाज़ में मायूसी थी .
' अच्छा ! ऐसा भी होता है .'- मैं चौंका .
" ऐसा ही तो होता है मेरे महान देश में ."- उसने कटाक्ष किया . मैं उसकी आँखों में सिफारिश के अभाव और गरीबी के कारण नौकरी न खरीद पाने के दुःख और भारतीय समाज में प्रचलित बैकडोर एंट्री की व्यवस्था के प्रति आक्रोश को स्पष्ट देख रहा था .
                     * * * * *

मंगलवार, मार्च 15, 2011

अगज़ल - 13

भुला दे अश्कों को , ला होंठों पे मुस्कान 
जिन्दादिली ही है , जिन्दगी की पहचान । 

मुहब्बत से गुरेज़ है लोगों को , तभी तो 
घर बन नहीं पाते, ये पत्थरों के मकान । 

बाँट दो सब खुशियाँ , हैं जो भी आगोश में 
कब  रुका  करती  हैं  बहारें , ऐ  बागबान  । 

बेवफाई तो अब दस्तूर - ए - मुहब्बत है 
फिर किस सोच में डूबे हो, क्यों हो परेशान ?

दामन थामकर हौंसले का , बस खड़े रहो
लेने दो तुम ,  इस जिन्दगी को इम्तिहान । 
मौसम बदलते ही खिले हैं फूल वहाँ पर 
चंद रोज़ पहले तक , जो गुलशन थे वीरान । 

बस  हैवानियत  को  मारने  की  देर  है
खुदा हो जाता है ' विर्क ' अदना-सा इंसान । 

दिलबाग विर्क   
* * * * *

शुक्रवार, मार्च 11, 2011

कविता - 6

    तुझे रुकना होगा  
      ऐ खुदा 
      तेरी सृष्टि 
      तेरी ही कोप दृष्टी से 
      हो रही है ध्वस्त 
      कभी वसुंधरा पर 
      हरियाली लहलहाने में 
      मदद करने वाला नील गगन 
      अनावृष्टि से 
      या फिर अतिवृष्टि से 
      नीरव कर देता है जन जीवन को 
      तो कभी खुद वसुंधरा 
      अपनी गोद में फैली 
      खूबसूरत दुनिया को 
      मिला लेती है मिटटी में 
      ऐसा क्यों होता है ?
      यह पूछने का हक तो नहीं हमें 
      क्योंकि तेरा हर कृत्य 
      मानव के हित में होगा 
      ऐसा विश्वास है सबको 
      और इसी श्रद्धा के चलते 
      आशा है जन -जन को 
      रचयिता 
      विध्वंसक नहीं हो सकता 
      मगर सब आशाएं 
      सब उम्मीदें हों परिपूर्ण 
      यह भी संभव नहीं 
      फिर भी 
      तुझे रुकना होगा 
      विध्वंस का कारण होने से  
      क्योंकि 
      विध्वंस करने वाले तो 
      काफी हैं 
      इसी वसुंधरा के सुपुत्र ही 
      और अगर तू भी 
      हो गया साथ इनके 
      तो कौन बचा पाएगा 
      बर्बादियों के सिलसिले से ?
      कौन रोक पाएगा 
      विनाश के तांडव को ?

             * * * * *

सोमवार, मार्च 07, 2011

दंगों के बाद

 
         शहर में तैनात 
         सेना और पुलिस के जवान 
         घूर रहे हैं 
         हर आने - जाने वाले 
         व्यक्ति को .

         कुछ दिन पहले 
         शहर में हुए 
         एक दंगे ने 
         शक के दायरे में 
         ला दिया है 
         हर आदमी को .

         दंगे की आग 
         अब बुझ चुकी है 
         माहौल सामान्य हो रहा है 
         धीरे - धीरे 
         लेकिन 
         दंगे के दौरान 
         हिंसक जानवर बनने के कारण
         शक के दायरे में आया आदमी 
         अभी तक 
         बाहर नहीं निकल पाया 
         उस छवि से .

         अक्सर 
         दंगों के बाद 
         वक्त लगता है 
         विश्वास बहाली में 
         वक्त लगता है 
         शक के दायरे से बाहर निकलकर 
         आदमी को 
         हिंसक जानवर से 
         पुन: आदमी बनने में .

             * * * * * 

गुरुवार, मार्च 03, 2011

अगज़ल - 12

तुम हर बार छुपा जाते हो , प्यार जताते - जताते 
हम हर बार जता  जाते हैं , प्यार छुपाते - छुपाते  ।

अभी तो दिल ने चहकने का इरादा किया था फिर 
क्यों चुप हुए लब तुम्हारे , हमें बुलाते - बुलाते ।

आखिर कोई फैसला तो हो नजरों के खेल का 
परेशां हो गए हैं दिल पर जख्म खाते -खाते ।

क्या कहें हम अपनी इस खस्ताहाल तकदीर को
खो  चुके  हैं  कई  मंजिलें  बस  पाते - पाते ।

ये तुम्हारा तिलिस्म था या हमारी बेबसी 
सांसों में सजा बैठे , हम तुम्हें भुलाते - भुलाते ।

हो सके तो ' विर्क ' जल्दी से जिन्दगी में आना 
कहीं बहुत देर न हो जाए , तुम्हारे आते - आते ।

दिलबाग विर्क
* * * * *  

मंगलवार, मार्च 01, 2011

षटपदीय छंद - 3

सच को पूछे न कोई , झूठ हुआ प्रधान 
सच्चे को मिलता जहर , झूठे को सम्मान .
झूठे को सम्मान , देते दुनिया के लोग 
नैतिकता मर रही , गले पड़ा कैसा रोग .
कडुवी दवा जैसा , दुष्टों को मारता सच 
पूछे ' विर्क ' सबसे , झूठ से क्यों हारता सच ?

                * * * * *                
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...